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दि॒व्यं सु॑प॒र्णं वा॑य॒सं बृ॒हन्त॑म॒पां गर्भं॑ दर्श॒तमोष॑धीनाम्। अ॒भी॒प॒तो वृ॒ष्टिभि॑स्त॒र्पय॑न्तं॒ सर॑स्वन्त॒मव॑से जोहवीमि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

divyaṁ suparṇaṁ vāyasam bṛhantam apāṁ garbhaṁ darśatam oṣadhīnām | abhīpato vṛṣṭibhis tarpayantaṁ sarasvantam avase johavīmi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दि॒व्यम्। सु॒ऽप॒र्णम्। वा॒य॒सम्। बृ॒हन्त॑म्। अ॒पाम्। गर्भ॑म्। द॒र्श॒तम्। ओष॑धीनाम्। अ॒भी॒प॒तः। वृ॒ष्टिऽभिः॑। त॒र्पय॑न्तम्। सर॑स्वन्तम्। अव॑से। जो॒ह॒वी॒मि॒ ॥ १.१६४.५२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:52 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:52


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सूर्य के दृष्टान्त से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (अवसे) रक्षा आदि के लिये (दिव्यम्) दिव्य गुण, स्वभावयुक्त (सुपर्णम्) जिसमें सुन्दर गमनशील रश्मि विद्यमान (वायसम्) जो अत्यन्त जानेवाले (बृहन्तम्) सबसे बड़े (अपाम्) अन्तरिक्ष के (गर्भम्) बीच गर्भ के समान स्थित (ओषधीनाम्) सोमादि ओषधियों को (दर्शतम्) दिखानेवाले (वृष्टिभिः) वर्षा से (अभीपतः) दोनों ओर आगे पीछे जल से युक्त जो मेघादि उससे (तर्पयन्तम्) तृप्ति करनेवाले (सरस्वन्तम्) बहुत जल जिसमें विद्यमान उस सूर्य के समान वर्त्तमान विद्वान् को (जोहवीमि) निरन्तर ग्रहण करते हैं, वैसे इसको तुम भी ग्रहण करो ॥ ५२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यलोक भूगोल के बीच स्थित हुआ सबको प्रकाशित करता है, वैसे ही विद्वान् जन सब लोकों के मध्य स्थिर होता हुआ सबके आत्माओं को प्रकाशित करता है। जैसे सूर्य वर्षा से सबको सुखी करता है, वैसे ही विद्वान् विद्या उत्तम शिक्षा और उपदेशवृष्टियों से सब जनों को आनन्दित करता है ॥ ५२ ॥ इस सूक्त में अग्नि, काल, सूर्य, विमान आदि पदार्थ तथा ईश्वर, विद्वान् और स्त्री आदि के गुण वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह एकसौ चौंसठवाँ सूक्त और तेईसवाँ वर्ग और बाईसवाँ अनुवाक पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सूर्यदृष्टान्तेन विद्वद्विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यथाऽहमवसे दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भमोषधीनां दर्शतं वृष्टिभिरभीपतस्तर्पयन्तं सरस्वन्तं सूर्यमिव वर्त्तमानं विद्वांसं जोहवीमि तथैतं यूयमप्यादत्त  ॥ ५२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दिव्यम्) दिव्यगुणस्वभावम् (सुपर्णम्) सुपर्णा रश्मयो विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (वायसम्) अतिगन्तारम्। वा गतिगन्धनयोरित्यतोऽसुन् युडागमश्चोणादिः। (बृहन्तम्) सर्वेभ्यो महान्तम् (अपाम्) अन्तरिक्षस्य। आप इत्यन्तरिक्षना०। निघं० १। ३। (गर्भम्) गर्भइव मध्ये स्थितम् (दर्शतम्) यो दर्शयति तम् (ओषधीनाम्) सोमादीनाम् (अभीपतः) अभित उभयत आपो यस्मिँस्तस्मात् (वृष्टिभिः) (तर्पयन्तम्) (सरस्वन्तम्) सरांस्युदकानि बहूनि विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (अवसे) रक्षणाद्याय (जोहवीमि) भृशमाददामि ॥ ५२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यलोको भूगोलानां मध्यस्थः सन् सर्वान् प्रकाशयति तथैव विद्वान् सर्वलोकमध्यस्थः सन् सर्वेषामात्मनः प्रकाशयन्ति यथा सूर्यो वर्षाभिस्सर्वान् सुखयति तथैव विद्वान् विद्यासुशिक्षोपदेशवृष्टिभिः सर्वान् जनानानन्दयति ॥ ५२ ॥अत्राग्निकालसूर्यविमानादीश्वरविद्वत्स्त्रियादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति चतुष्षष्ट्युत्तरं शततमं सूक्तं त्रयोविंशो वर्गो द्वाविंशोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्यलोक भूगोलात स्थित होऊन सर्वांना प्रकाशित करतो, तसा विद्वान सर्व लोकांमध्ये स्थिर होऊन सर्वांना प्रकाशित करतो. जसा सूर्य पर्जन्याने सर्वांना सुखी करतो तसेच विद्वान विद्येने, उत्तम शिक्षणाने व उपदेश वृष्टीने सर्वांना आनंदित करतो. ॥ ५२ ॥